शनिवार, 4 अप्रैल 2009


बर्फ की मानिंद सुलगता मन
लालटेन की रोशनी में भी
आत्मिकता के अंधेरे को
प्रकाशित करने में असमर्थ है
वाद
प्रतिवाद
और विषाद नें
शुष्क कर दिया है
धैर्य के अंतिम बिंदु को,
प्रज्वलित प्रदीप्त की ज्योति बरसाती
तुम्हारी स्वीकृति के एक-एक शब्द
कटाक्ष कर रहें हैं
अस्तित्व पर,
क्षुधित,
चंचल,
और विद्रोहमय जीवन की
पहली सीढ़ी चढ़ाया गया हूं आज
बलि की तरह,
पता ही नहीं चला कि कब
विश्वास का चोला
विवशता की चादर में परिवर्तित हो गया,
सच!
पता ही नहीं चला,
शायद!
इसी परिवर्तन के परिणामों ने
अधूरे संवाद को परिवर्तित कर दिया...

आखिरी संवाद में...

8 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

क्षुधित,
चंचल,
और विद्रोहमय जीवन की
पहली सीढ़ी चढ़ाया गया हूं आज
बलि की तरह,
पता ही नहीं चला कि कब
विश्वास का चोला
विवशता की चादर में परिवर्तित हो गया,
सच!
पता ही नहीं चला,



मन में टीस भर देते हं एक एक शब्द...
बहुत सुंदर अभिब्यक्ति...
बहुत सुंदर रचना...

शून्य ने कहा…

गहरी सोच रखते हो
इसी को अपनी यूएसपी बनाए रखना।
शुभकामनाएं।

शेतकरी मित्र...Journalist ने कहा…

बेहतरीन....
एक एक शब्द अर्थपूर्ण है...
जितनी तारीफ की जाए कम है
बधाइयां...

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छा लिखते हैं भाई...
एक एक शब्द जुड़कर इतनी सुंदर ब्याख्या कर सकते हैं...सच में अविश्वसनीय..
अद्भुत....

Unknown ने कहा…

कल्पनाशीलता और अभिब्यक्ति बेमिसाल है...
बधाई स्वीकार करें...

Unknown ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अजित त्रिपाठी ने कहा…

माफी चाहता हूं विचारक जी.
आपकी पोस्ट गलती से हट गई..
लेकिन आप लोगों की हौसला अफज़ाई ही लिखने के लिए प्रेरित करती है...आप सभी का दिल से धन्यवाद

बेनामी ने कहा…

sweekriti... ya phir... adhura....!