सोमवार, 27 अप्रैल 2009


घनघोर निस्तब्धता के बीच,
अर्धनिद्रा से तरबतर पलकों पर
बेतहासा दौड़ते गए सपने
हद की ज़द तक,
सपनों की अंतर्दशा देख
गुलाबी परदों के
पतली परत के पीछे छिपा
अविचल धैर्य भी,
कराह उठा,
झल्लाकर
वेदनापूर्ण क्रंदन करने लगा,
फूहड़पन और
उजड्डपन की पराकाष्ठा पर,
ये कैसी मनोवृत्ति ?
जिसमें,
भावनाएं,समझ,और आदमीयत
के बीच,
लेशमात्र का भी सामंजस्य नहीं,
लहलहाती अभिलाषाओं की फसल पर,
तुषारापात करती
अंतस्तल की द्रवज्वाला,
बंजर करने पर उतारू है
स्नेह की ज़मीन को...

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

घनघोर निस्तब्धता के बीच,
अर्धनिद्रा से तरबतर पलकों पर
बेतहासा दौड़ते गए सपने
हद की ज़द तक,
बहुत सुंदर रचना...
बधाई...

Unknown ने कहा…

लहलहाती अभिलाषाओं की फसल पर,
तुषारापात करती
अंतस्तल की द्रवज्वाला,
बंजर करने पर उतारू है
स्नेह की ज़मीन को...

बहुत खूब,
सुंदर अभिब्यक्ति.

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छी रचना
बहुत अच्छी अभिब्यक्ति

बेनामी ने कहा…

bahut badhiya...
lajavab