मंगलवार, 19 जनवरी 2010

गम-ए-एहसास

इस दिल से निकली "आह" का असर नहीं रहा !
यह जनता हूँ अब मैं बेखबर नहीं रहा !!

तोडा है इतनी बार तुमने वाद-ए-दिल को !
वादों के टूट जाने का अब डर नहीं रहा !!

महसूस करे मेरी जो नि:शब्द सिसकियाँ !
मेरी नज़र में ऐसा हमनज़र नहीं रहा !!

जिसकी उम्मीद पर था निछावर ये ज़माना !
अफसोसनाक है की वो दिलबर नहीं रहा !!

चुनाव दे जो दीवार में मुहब्बत की कशिश को !
ऐसा ज़माने में कोई अकबर नहीं रहा !!

चल बांध अपना डेरा कहीं और चल "अजित" !
अब रहने लायक तेरे ये शहर नहीं रहा !!

2 टिप्‍पणियां:

अबयज़ ख़ान ने कहा…

गम का बेहतरीन एहसास है अजित, लेकिन रहने लायक तो अब कोई भी शहर नहीं रहा...

Unknown ने कहा…

gajab guru chha gaye tusi....