इस दिल से निकली "आह" का असर नहीं रहा !
यह जनता हूँ अब मैं बेखबर नहीं रहा !!
तोडा है इतनी बार तुमने वाद-ए-दिल को !
वादों के टूट जाने का अब डर नहीं रहा !!
महसूस करे मेरी जो नि:शब्द सिसकियाँ !
मेरी नज़र में ऐसा हमनज़र नहीं रहा !!
जिसकी उम्मीद पर था निछावर ये ज़माना !
अफसोसनाक है की वो दिलबर नहीं रहा !!
चुनाव दे जो दीवार में मुहब्बत की कशिश को !
ऐसा ज़माने में कोई अकबर नहीं रहा !!
चल बांध अपना डेरा कहीं और चल "अजित" !
अब रहने लायक तेरे ये शहर नहीं रहा !!
2 टिप्पणियां:
गम का बेहतरीन एहसास है अजित, लेकिन रहने लायक तो अब कोई भी शहर नहीं रहा...
gajab guru chha gaye tusi....
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