ज़िंदगी कट रही थी रोज़ का रो़ज़,जस का तस,मैंने समझने की कोशिश की तो पन्ने बनने लगे।
आप भी पलटें और रुबरु हों मेरी ज़िंदगी से।
शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010
होश में न आने दे हमको तू साकी रात भर ।
हमको पीने दे पिलाने दे तू साकी रात भर ।।
तेरा मयखाना, सुना है सारे जख़्मों की दवा ।
अपनी मधुशाला में रुक जाने दे साकी रात भर।।
2 टिप्पणियां:
ओह क्या बात है पंडित जी .... बहुत खूब ...
शुक्रिया मिश्रा जी...
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